क्रिकेट कि दुनिया मे एक से बढकर एक फिरकी गेंदबाज देने वाले देश भारत में आज फिरकी गेंदबाजों का आकाल पड़ चुका है। जिसने अपने फिरकी गेंदबाजों की बदौलत ही दुनिय़ा भर के दिगजो को धुल चटाया हुआ है। आज वही फिरकी लगभग दम तोड़ने की स्थिती से गुजर रहा है। इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कुंबले और हरभजन के अलवा कोई ऐस गेदबाज नही दिखता है जो अंतराष्टीय स्तर की गेंदबाजीं कर सके। कुंबले वैसे भी फटा-फटा क्रिकेट को अलविदा कह चुके है और ज्यादा से ज्यादा दो साल और अपने जौहर का कमाल दिखा पाएगें। अपने करीब 18 साल के करिअर और पचास हजार से ज्यादा गेंदें फेक चुके इस शानदार क्रिकेटर से अब उम्मीद नहीं करनी चाहिए। वैसे भी समीझको की माने तो भारतीय क्रिकेट के इतिहास में फिरकी गेंदबाजी कभी इतनी मुश्किल दौर से नहीं गुजरा है। यह समस्या कोइ रातों रात नहीं हुई। 90 के दशक तक घरेलु क्रिकेट में फिरकी गेंदबाजों का जलवा हुआ करता था। लेकिन 1995-96 में रणजी में फेंके गए कुल ओवरों का 66 प्रतिशत स्पिन गेंदबाजों नें फेंका इन्होने कुल गिरे विकेटों का 67 प्रतिशत आपस में बाँटे। लेकिन जब गांगुली और जान राइट भीरतीय क्रिकेट का काया पलट करने में लगे थे तो वे तेज गेंदबाजों को प्रोत्साहन और बेहतर प्रशिझण पर जोर दिया गया। नतीजा 2005-06 में तो घरेलु सत्र में सिफॅ 46 फीसदी ओवर ही स्पनरो के खाते में आया और वे 42 प्रतिशत विकेट ही चटका पाए।
गांगुली - राइट का यह प्रयोग बाद में द्रविड़-चैपल ने भी जारी रखा। 2000-01 से लेकर बांग्लादेश सीरीज तक टीम ने 72 टैस्ट मैच खेले इनमें से महज एक स्पिनर 34 मैचों मे कुंबले और हरभजन सिंह को एक साथ खेलने का मौका मिला। 28 टैस्ट मैंचो मे टीम महज एक स्पिनर के साथ मैदान में उतरी। ये कोइ छोटा-मोटा बदलाव नहीं हैं। यह उस बदलाव की झलक है जिस टीम के स्पिनरों की दुनिया में तुती बोलती थी।
अगर हम भारतीय स्पिन गेंदबाजी की बात करें तो इसे चार दौर में हम आसानी से अलग-अलग कर सकते हैं।
पहला दौर :-
1946 से 1960 का भारतीय क्रिकेट जो अभी अपने बचपन से गुजर रहा था। इस में बीनू मंनकंड जैसा आलराउण्डर मिला जो अपने स्पिन पर बल्लेबाजों को घुमाते थे ही साथ में बल्ले से भी जौहर दिखाते थे उन्हे लेग स्पिनर सुभाष गुप्ते और आफ स्पिनर गुलाम अहमद का साथ मिला।
दूसरा दौर :-
यह वह दौर था जब भारतीय फिरकी गेंदबाजों के सामने बड़े से बड़े बल्लेबाज पानी माँगते नजर आते थे यह दौर था प्रसन्ना भागवत चंद्रशेखर बिशन सिंह बेदी और वेंकट राघवन का जो की 1961 से 1982 तक रहा जिसे भारतीय फिरकी का स्वणॅ युग भी कहा जाता है। इस दौर में भारतीय टीम अकेली ऐसी टीम थी जो अपने स्पिनरों की बदौलत टेस्ट मैच जीतती थी। चंद्रशेखर और बेदी को तो फिरकी का जादूगर कहा जाता है। ये दोनो लेग स्पिनर तथा प्रसन्ना और राघवन ऑफ स्पिनर थे। बेदी प्रसन्ना और चंद्रशेखर की तिकड़ी के सामने बड़े से बड़ो ने घुटने टेक दिये थे।
तीसरा दौर :-
80 से 90 के दशक मे दिलीप दोषी, शिवलाल यादव और मनिंदर सिंह का रहा। ये भले ही उस उँचाइ को ना छू पाए लेकिन उस विरासत को आगे बढाया। इसी दौर में नरेंद्र हिरवानी और शिवरामकृष्णन आए लेकिन ये मैच जिताऊ नही बन पाए। हिरवानी ने अपने पहले टेस्ट में वेस्ट इंडीज के खिलाफ 16 विकेट लेकर जो कमाल दिखाया उसे फिर वे दोहरा न सके।
चौथा दौर :-
यह वह दौर है जो 91 से शुरू हुआ। इसी में कुंबले का आगाज हुआ जिन्हे कुछ समय के तक वेंकटपति राजू और राजेश चौहन का साथ मिला उस समय ऐसा लगने लगा कि भारतीय फिरकी का सुनहरा दौर फिर शुरू हो गया है लेकिन यह मंगेरीलाल के सपने की तरह जल्द ही टूट गया। बाद में कुंबले को सुनील जोशी, हरभजन और मुरली कातिर्क साथ मिला जिसमें हरभजन के अलावा कोई भी विश्वस्तरीय गेंदबाज साबित नहीं हो सका। लेकिन उन्हें भी एक साथ गेंदबाजी करने का मौका बहुत कम मिला है। अब तो कुंबले सन्यास ले चुके है, तो ये देखना बङा दिलचस्प रहेगा की हरभजन का साथ कौन निभायेगा अमित मिश्रा या प्रज्ञान ओझा मगर आज के दौर के क्रिकेट हम नजर दौड़ाते तो देखते हैं कि अंतिम ग्यारह में मुश्किल से ही दो स्पिनरों को जगह मिलती है टीम तीन तेज गेंदबाजों, एक स्पिनर और कामचलाउ गेंदबाजों के साथ उतरती है। इससे भी स्पिम गेंदबाजी पर असर पड़ रहा है। क्रिकेट का इतिहास गवाह है कि स्पिन जोंड़ी दार के साथ ही हिट हुआ है। बेदी – प्रसन्ना, लेकर – लाक , बिले ओ टिले – क्लेरी ग्रिमेंट , कादिर – अहमद , एंबुरी – हेमेंग्स , केंबले – राजू ये जोड़ीयाँ अपने अपने समय बल्लबाजों पर कहर बरपाती थी। ऐसे में टीम के अकेले स्पिन गेंदबाजों पर दबाव कहीं अधिक होता जा रहा है क्रिकेट जिस तरह पावर गेम होता जा रहा है उसमें बल्लेबाज भी स्पिन गेंदबाजों पर ज्यादा से ज्यादा रन जुटाने में लगे रहते है।
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