शुक्रवार, 14 जून 2013

राष्ट्रीय राजनीतिकक्षेत्र में मोदी

काफी जद्दोजहद और कश्मकश के बाद भाजपा अटल – आडवाणी के युग से बाहर निकल पीढी का बदलाव हो गया। अटल बिहारी वाजपेयी स्वास्थ्य कारणों से राजनीतिक परिदृश्य से बाहर बाहर हो गए जबकि आडवाणी अपनी प्रधानमंत्री बनने की लोलुपसा के शिकार हो गए। गोवा कार्यकारणी के दो दिवसीय बैठक में काफी उठा – पटक के बाद आखिरकार भाजपा ने अपने मिशन 2014 की कमान अपने सबसे लोकप्रिय नेता नरेन्द्र दामोदरदास मोदी  के हाथो में थमा दी।  
          नरेन्द्र मोदी का चुनाव प्रचार अभियान का प्रमुख बनना प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी दावेदारी पर परोक्ष रुप से मुहर लगने जैसा है। वह जिन हलात में चुनाव प्रचार अभियान समिति के प्रमुख बने उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके सामने कई तरह की चुनौतियाँ है। क्योंकि जिस तरह से भाजपा में चुनाव प्रचार अभियान समिति के प्रमुख का फैसला करने से पहले कलह की जो स्थिती बनी उससे मोदी के समक्ष यह और अच्छे से स्पष्ट हो जाना चाहिए कि उनकी पहली जरुरत पार्टी को एक सूत्र में बांधने की है और जाहिर है दूसरी जरुरत चुनाव प्रचार के जरिये ऐसा माहौल पैदा करने की है कि भाजपा हर लिहाज से कांग्रेस का कहीं अधिक मजबूत विकल्प नजर आने लगे।  
      अब जब आम चुनाव में बहुत कम समय रह गया है और एक विचार जनता की अदालत  फैसला इसी साल हो जाने का भी है तब राष्ट्रीय राजनीति का कोहरा धीरे – धीरे छंटने लगा है। अपने जयपुर अधिवेशन में जहाँ काग्रेस ने राहुल गांधी को अपना उपाध्यक्ष निर्वाचित करके उन्हे भावी प्रधानमंत्री के रुप में प्रस्तुत करने के संकेत दिये थे वहीं भाजपा ने गोवा मे मेदी को चुनावी कमान थमा दी। इस प्रकार चुनाव 2014 देश की दो बङी पार्टीयों के बीच की टक्कर न होकर दो व्यक्तित्वो के बीच की टक्कर होगी। भारतीय इतिहास शायद ऐसा पहली बार होगा।
      व्यक्तित्व का यह मामला श्रम बनाम सामंत का भी है। जहाँ नरेन्द्र मोदी चाय के ठेले से अपने पेशेवर जिन्दगी का आगाज करके आज एक कुशल राजनेता और सफल मुख्यमंत्री के साथ अच्छे प्रबंधंक के रुप में अपने आप को स्थापित किया है। उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष इतना वजनदार है कि उसके समानंतर चलने वाला उनका सांप्रदायिक चरित्र वाला पक्ष धीरे – धारे पीछे छूटता जा रहा है। पिथले दस बारह सालों में मोदी को खलनायक साबित करने के लिये जितने प्रयास देश और विदेश में किये गये वैसा शायद ही किसी राजनेता के लिए किया गया हो। इसके बावजूद मोदी की लोकप्रियता बढती जा रही है और हमलावरों के हथियार भोथरे साबित होते जा रहे है। मोदी नकारात्मकता में उलक्षने बजाय ध्येय की ओर बढते जा रहे है। आज स्थति यहाँ तक आ पहुची है कि यूरोपिय समुदाय से बहिष्कृत यह नेता उन्ही के देश में सम्मानित हो रहा है। अमेरिकी संसद में भी उनके पक्ष में आवाजें गुंजने लगी है। यह राजनीतिक विसात पर उनकी ठोस तथा दमदार चालों का परिणाम है।
      वहीं दूसरी ओर नेहरु गांधी की विरासत का झोला थामें राहुल गांधी है। जिन्होनें अपनी सरकार के नौ साल के लंबे कार्यकाल में किसी मंत्रालय तक की भी जिम्मेदारी न संभालकर न तो अपनी क्षमता का परिचय दिया और न ही कोई प्रशासनिक प्रशिक्षण लेना उचित समझा। हाँ राज्यों के चुनावों में अपनी पार्टी की बागडोर जरुर संभाली, लेकिन परीणाम पहले से कुछ अच्छे नहीं आये हाँ बुरे परिणामों से दो चार जरुर होना पङा। उनकी सबसे बङी राजनीतिक उपलब्धि यह रही कि चुनाव 2009 में वह उत्तर प्रदेश में पार्टी को उल्लेखनीय सफलता दिलाने में सफल रहे। लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में उनके धुआँधार प्रचार के बावजूद पार्टी दयनीय स्थिती में रही और तो और खुद के संसदीय क्षेत्र में भी पार्टी को भारी पराजय का सामना करना पङा।
      देश की आज जैसी दुर्दशा है उसमें बदलाव का एक मात्र भरोसा जनता को मोदी में नजर आ रही है। आखिर क्यों देशव्यापी लोकप्रियता वाला दूसरा कोई राजनेता नहीं है? अगर खबरिया चैनलो द्वारा कराये गए चुनाव पूर्व आकलन पर गौर करें तो भाजपा को 31 प्रतिशत मत मिलने की संभावना है इतना मत प्रतिशत 200 के करीब या उससे अधिक सीटें दिला सकता है भाजपा अगर अपना प्रधानमंत्री मोदी को घोषित कर देता है तो उसके वोट प्रतिशत और बढ सकते है साथ ही वोटों के ध्रुवीकरण को कारण कांग्रेस को भी वोटों के प्रतिशत में बढोतरी होगी। जिसका सीधा नुकसान क्षेत्रीय दलों को होगा तो मोदी को लेकर उनके अंदरखाने उथल पुथल की स्थिती होना लाज़मी है। लेकिन यह सब महज एक आकलन है।