सौ करोड़ के भारत में हाकी ने दम तोड़ दिया है। भारत के लिए इससे ज्यादा शर्म की बात क्या हो सकती है की जो भारत का राष्ट्रीय खेल है , जिस खेल की बदौलत भारत ने कभी अन्तराष्ट्रीय जगत में नाम कमाया था, उसी खेल की वजह से भारत को आज बेशर्मी झेलनी पड़रही है |
हमारे देश के पास
आठ ओलम्पिक स्वर्ण पदकों का उत्कृष्ट रिकॉर्ड है। भारतीय हॉकी का स्वर्णिम युग
1928-56 तक था जब भारतीय हॉकी दल ने लगातार 6 ओलम्पिक स्वर्ण पदक प्राप्त किए। भारतीय
हॉकी दल ने 1975 में विश्व कप जीतने के अलावा दो अन्य पदक (रजत और कांस्य) भी जीते।
भारतीय हॉकी संघ ने 1927 में वैश्विक संबद्धता अर्जित की और अंतरराष्ट्रीय हॉकी संघ
(एफआईएच) की सदस्यता प्राप्त की। इस प्रकार भारतीय हॉकी संघ के इतिहास की शुरूआत ओलम्पिक
में अपनी स्वर्ण गाथा आरंभ करने के लिए की गई। इस दौरे में भारत को 21 मैचों में से
18 मैच भारत ने जीते और प्रख्यात खिलाड़ी ध्यान चंद सभी की आंखों में बस गए जब भारत
के कुल 192 गोलों में से 100 गोल उन्होंने अकेले किए। यह मैच एमस्टर्डम में 1928 में
हुआ और भारत लगातार लॉस एंजेलस में 1932 के दौरान तथा बर्लिन में 1936 के दौरान जीतता
गया और इस प्रकार उसने ओलम्पिक में स्वर्ण पदकों की हैटट्रिक प्राप्त की।
स्वतंत्रता के बाद
भारतीय दल ने एक बार फिर 1948 लंदन ओलम्पिक, 1952 हेलसिंकी गेम तथा मेलबॉर्न ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीत कर हैटट्रिक प्राप्त
की। इस स्वर्ण युग के दौरान भारत ने 24 ओलम्पिक मैच खेले और सभी 24 मैचों में जीत कर
178 गोल बनाए (प्रति मैच औसतन 7.43 गोल) तथा केवल 7 गोल छोड़े। भारत को 1964 टोकियो
ओलम्पिक और 1980 मॉस्को ओलम्पिक में दो अन्य स्वर्ण पदक प्राप्त हुए।
भारत ने ओलंपिक
में लगातार आठ स्वर्ण पदक जीत कर जो पहचान बनायी थी, आज भारत सरकार और खेल प्रशासन की वजह से
वो पहचान लगभग खो सी गयी है | हॉकी का जो अपमान
देश में हुआ, उसकी मिसाल शायद कहीं ढूंढें नहीं मिलेगी| भारतीय हॉकी टीम चीन में चल रही एशियन चैम्पियनशिप जीत
कर लौटी तो हॉकी इंडिया ने विजयी टीम के प्रत्येक खिलाड़ी को २५-२५ हज़ार रुपये ईमान
में देने की घोषणा कर दी| हॉकी के प्रति बरते
जा रहे इस सौतेले व्यवहार से क्षुब्ध विजेता टीम के खिलाड़ियों ने हॉकी इंडिया की इस
पेशकश को ठुकरा दिया| जैसे ही खिलाड़ियों ने
इनामी राशि को ठुकराया; पूरे देश में हॉकी इंडिया
की आलोचना होने लगी| इससे आजिज हॉकी इंडिया
के महासचिव नरेन्द्र बत्रा ने हॉकी खिलाड़ियों को लालच से दूर रहने की हिदायत दे डाली| उनका कहना था कि खिलाड़ियों को अपने खेल पर ही ध्यान
देना चाहिए और जो मिल रहा है उसे स्वीकार कर लेना चाहिए| मगर, उनका यह उपदेश न
तो खिलाड़ियों को रास आया और न ही देश को| गाहे-बगाहे सरकार की भी आलोचना होने लगी तो खेल मंत्री अजय माकन को मैदान में उतरना
ही पड़ा| उन्होंने मीडिया को स्पष्ट किया कि खिलाड़ियों
को इनाम देने का फैसला हॉकी इंडिया का था न कि सरकार का| सरकार सभी रुपये खिलाड़ियों के कोचिंग कैंप और ट्रेनिंग
पर खर्च करती है|
उनका कहना है कि सरकार
ने पिछले 6 माह में हॉकी इंडिया पर 7.81 करोड़ रुपये की रकम खर्च की है| इसमें 5.97 करोड़ रुपये कोचिंग कैंप, 1.75 करोड़ रुपये विदेशी दौरों और 8.75 लाख रूपए विदेशी विशेषज्ञ पर किया गया खर्च
शामिल है| हो सकता है कि माकन का कहना सही हो मगर क्या
वे यह नहीं जानते कि खेल में विजेता टीम को उचित इनाम मिलना ही चाहिए और खेल मंत्री
होने के नाते उनकी जिम्मेदारी है कि वे स्वयं पहल कर विजेता टीम का उचित "सत्कार"
करते|
हॉकी को भारत का
राष्ट्रीय खेल कहा जाता है| हॉकी ने ही कई दशकों
तक ओलंपिक खेलों में भारत का झंडा बुलंद किया हुआ था| हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद को कौन भूल सकता है जिन्होंने
अपने खेल कौशल से भारतीय हॉकी को बुलंदी की ऊँचाइयों तक पहुँचाया था| मगर व्यावसायिकता की चकाचौंध और विदेशी कंपनियों के भ्रामक
प्रचार-प्रसार ने हॉकी को खेल परिदृश्य से हाशिये पर ला पटका| रही-सही कसर सरकारी नीतियों ने पूरी कर दी|
दो दशकों से भारत
में राष्ट्रीय खेल हॉकी के प्रति सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं ने उदासीनता का रवैया
अख्तियार कर रखा है| क्रिकेट को ही खेल मानने
की मानसिकता ने भी हॉकी की लोकप्रियता को जमकर आघात पहुँचाया है| भद्रजनों के इस खेल का विश्व-विजेता बनने के पश्चात भारतीय
क्रिकेट टीम पर केंद्र एवं राज्य सरकारों ने रुपयों सहित अनेक सुविधाओं की बरसात कर
दी थी| यहाँ तक कि रेल मंत्रालय ने सभी विजेता खिलाड़ियों
को प्रथम श्रेणी वातानुकूलित डिब्बे में आजीवन मुफ्त यात्रा हेतु रेलवे पास प्रदान
किए थे| बीसीसीआई ने भी प्रत्येक खिलाड़ी को १ करोड़, प्रत्येक सहायक कर्मी को ५० लाख और प्रत्येक चयनकर्ता
को २५ लाख की नगद राशि इनाम के रूप में दी थी|
वैसे हॉकी इंडिया
की इस बात में तो दम दिखता है कि चूँकि बीसीसीआई अमीर क्रिकेट बोर्ड है और पूरे विश्व
में उसकी तूती बोलती है; जिस वजह से क्रिकेट खिलाड़ियों
पर रुपयों की बरसात होना स्वाभाविक है| मगर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हॉकी की इस दुर्दशा के पीछे भी हॉकी इंडिया की उदासीनता
ही है| क्या हॉकी इंडिया में इतनी ताकत भी नहीं
बची कि वह सरकार पर दबाव डालकर हॉकी खिलाड़ियों के लिए बेहतर सुविधाओं की मांग कर सके?
कहते हैं जब कोई
भी संस्थान या व्यक्ति अपने पतनके दौर से गुज़रता है तो एक दिन उसका उत्थान भी होता
है, यानी उतार-च़ढाव की स्थिति
सब पर लागू होती है। अगर नहीं लागू होती है तो वह है हमारी भारतीय हॉकी टीम, जी हां,
दुनिया में हर बदहाल संस्था
और टीम के दिन बहुर सकते हैं, लेकिन भारतीय हॉकी टीम के बारे में यही कह सकते है कि
यह फिर से कामयाबी का सवेरा शायद ही कभी देख सके। बात स़िर्फ खिताबों के जीतने की ही
नहीं, बल्कि हॉकी की संस्थात्मक
स़डन से है। आज हॉकी के अंदर और बाहर का पूरा तंत्र इस क़दर स़ड चुका है कि जब भी हॉकी
से जु़डी खबर आती है, तो कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर होता है जिससे हमारे राष्ट्रीय खेल की
फज़ीहत हो जाती है। अंतरराष्ट्रीय मुक़ाबलों में शर्मनाक हार झेलना तो बहुत पुरानी बात
हो चुकी है। अब हम अपने देश में ही आपसी ल़डाई देख रहे हैं। कभी कोच के सेक्स स्कैंडल
हॉकी को शर्मसार करते हैं तो कभी खिला़डी खुद के मेहनताने को लेकर स़डक पर विरोध प्रदर्शन
के लिए उतर आते हैं। इतना ही नहीं टीम के खिलाडि़यों के आपसी संबंधों पर भी विवाद बची
खुची कसर पूरी कर देते हैं। कुल मिलाकर हॉकी आज अपने निम्नतम दौर से गुज़र रही है,
लेकिन मुश्किलें हैं कि
फिर भी खत्म होने का नाम ही नहीं लेती हैं। अभी ताज़ा मामला चैम्पियंस ट्रॉफी और ओलंपिक
क्वालीफाइंग टूर्नामेंट की मेज़बानी को लेकर उठ । इस बात से तो सभी वाक़ि़फ हैं कि पिछले
कुछ दिनों से अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ (एफआईएच), हॉकी इंडिया (एचआई) और भारतीय हॉकी महासंघ (आईएचएफ) के
बीच हुए आपसी समझौते से नाराज़ चल रहा था। इस बात का अंदेशा लगाया जा रहा था कि अंतरराष्ट्रीय
हॉकी महासंघ (एफआईएच) ज़रूर कोई न कोई ठोस क़दम उठाएगा,
ऐसा ही हुआ। हॉकी इंडिया
(एचआई) और भारतीय हॉकी महासंघ (आईएचएफ) के बीच हुए आपसी समझौते से नाराज़ अंतरराष्ट्रीय
हॉकी महासंघ (एफआईएच) ने भारत से चैंपियंस ट्रॉफी और ओलंपिक क्वालीफाइंग टूर्नामेंट
की मेज़बानी छीन ली। उसके इस क़दम ने न स़िर्फ हॉकी संघ की फज़ीहत की है,
बल्कि इससे देश की भी फज़ीहत
झेलना पङा।
हाकी का स्वर्णिम
इतिहास यह कहता है कि जब तक हाकी खिलाडि़यों के हाथ में थी तब तक उसे कोई दूसरा देश
छू नहीं पाया जैसे ही हाकी राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और खेल के दलालों के हाथों में पहुंच गई हाकी
अपना मूल खेल खो बैठी। अगर इस खेल की बदहाली यूं ही जारी रही तो बहुत खेद के साथ कहना
प़ड सकता कि हॉकी स़िर्फ स्कूल के किताबों तक ही राष्ट्रीय खेल रह जाएगा। और हम भी
बङे शान से अपने आनेवाली पीढी को कहेंगें हाकी में हमनें आठ ओलम्पिक स्वर्ण पदक
जीते है, तो शायद ही आनेवाली पीढी इस बात पर भरोसा करेगी।