गुरुवार, 3 मार्च 2011

राहुल गांधी, नीतिगत कम रणनीति ज्यादा

मई 2009 में जब कांग्रेस दोबारा जीतकर सत्ता में आई तो आमजनता के बीच यह भावना काम कर रही थी कि मनमोहन सिंह वैश्विक मंदी के बावजूद देश के आर्थिक विकास को बनाए रखा। जिसका पुरस्कार जनता ने कांग्रेस को जिताकर दिया भी, लेकिन यूपीए 2 के कार्यकाल में जिस तरह से एक के बाद एक रहे घोटालों और भ्रष्टाचार के खुसासों से और लगातार बढती मंहगाई के कारण भारत का आम नगरिक ठगा सा महसूस कर रहा है। 2 - जी स्पेक्ट्रम के लेकर विपक्ष की जेपीसी मांग के सामने आखिर सरकार झुकी और जेपीसी गठीत कर अपना चारित्रीक सुधार में भले ही लग गई हो, लेकिन आने वाले चुनावों में जनता सरकार को माफी देने मूड में नही दिख रही है। इसका प्रमाण बिहार के चुनावी नतीजों को देखकर लगाया जा सकता है जहां काग्रेस बङा भारी उछाल मारने की सोच रहा था और उसने लगाया भी 9 सीटों से छलांग लगाकर 4 सीटों पर सिमट गई।

2011 मे काग्रेस के सामने जो सबसे बङा संकट है वो है नेतृत्व का फिलहाल कांग्रेस के पास व्यापक जनाधार वाला राष्ट्रिय स्तर का कोई भी कद्दावर नेता नही दिख रहा है। नीतीश कुमार, नरेन्द्र मोदी, डा. रमण सिंह और शिवराज सिंह चौहान जैसे दिग्गज नेताओं की तरह कांग्रेस के पास राज्यों मे भी कोई नेता नहीं दिख रहा है। ले देकर राहुल गांधी फैक्टर ही कांग्रेस के पास अंतिम विकल्प दिख रहा है लेकिन बिहार के विधानसभा और उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में न तो उनका करिश्मा चला और न चुनाव जिताने का कोई दम खम अथवा राजनीतिक कौशल। चलिए ये मान लिया जाए की बिहार में उन्होने ज्यादा दौरा नही किया, जो किया वह भी चुनावीं महासंग्राम के वक्त किया या फिर वहां के चुनावी परिणाम पूरी तरह से एंटी लालू के कारण आए लेकिन उत्तर प्रदेश के बारे क्या तर्क दिया जा सकता है। जहां राहुल ने गांधी ने अपने कुल दौरों का 80 प्रतिशत दिया। पार्टी को जमीनी स्तर पर मजबूत करने का प्रयास भी किया। दलित और बुंदेलखंड के मुद्दे के साथ साथ मायावती पर केन्द्र के पैसों का दुरुपयोग करने का मुद्दा भी लागतार उछाला। इन सबके बावजूद पंचायत चुनावों में मायावती ने अपनी मजबूत पकङ तो साबित की ही, साथ ही राहुल और काग्रेस के बौनेपन को भी दिखा दिया।

राहुल गांधी ने जबसे भारतीय राजनीति नें अपना राजिस्ट्रेशन करवाया था। उसके चन्द दिनों बाद ही वह भारतीय युवाओं के चहेते बन गए। कांग्रेस भी इससे अतिउत्साहित दिखी उसे लगने लगा कि देश का दूसरा जयप्रकाश नारायण आ गया है लेकिन इस बार उसके खिलाफ नहीं बल्की उनके कंधों से कंधा मिलाकर चलेगा। लेकिन राहुल गांधी में अभी राजनीतिक परिपक्वता और कूटनीतिक धार न के बराबर है अन्यथा अमेरिकी राजदूत से हिन्दू आतंकवाद की तर्कहीन चर्चा वह शायद ही करते। रही सही कसर संप्रग सरकार के मंत्रीयों ने पूरा कर दिया। युवाओं को लग रहा था कि राहुल गांधी इन भ्रष्टाचारियों के खिलाफ जरुर कार्यवाही करेगें, लेकिन कारवाई करनी तो दूर की बात रही राहुल गांधी ने इन भ्रष्टाचारियों के खिलाफ ज़ुबान तक खोलने की ज़हमत नही उठाई।

कितनी बार यह देखा गया कि राहुल गांधी का राजनीतिक आचरण भी उन्ही नेताओं के जैसा है जो राजनीतिक भ्रष्टाचार के मुद्दे पर दो मुंही बात किया करते है, और जनता को मूर्ख बनाने का काम करते है। इतिहास गवाह है कि देश का युवा अपना नायक उसे चुनता है जो ज़ुबान और कर्म में सामंजस्य बनाए रखता है। शायद युवाओं को लगने लगा है कि राहुल गांधी इन दोनों गुणों में सामंजस्य नहीं बिठा पा रहे है। शायद यही कारण है कि पिछले दिनों उत्तर प्रदेश दौरे के दौरन अलग अलग हिस्सों मे युवाओं ने जिस तरीके से उनका विरोध किया उससे तो यही प्रतीत हो रहा है कि राहुल गांधी का करिश्मा अब चल नही पा रहा है, क्योकिं युवाओं की बात और उनकी वकालत करने के बावजूद युवा ही उनका विरोध सबसे ज्यादा कर रहे है। हालांकि देश के अलग अलग हिस्सों में युवाओं के बीच जाकर राजनीति का ज्ञान बांटने वाले राहुल गांधी को भी यह आशा नही रही होगी की उन्हे उत्तर प्रदेश में इस तरह युवाओं का विरोध क्षेलना पङेगा।

गौरतलब है कि राहुल गांधी जिन विश्वविधालयों मे गए वहां अपनी कांग्रेस पार्टी का ही बख़ान करते रहे। और तो और विपक्षी दलों के खिलाफ खूब विषवमन किया, खासतौर पर भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस के खिलाफ उन्हों ने जिन शब्दों प्रयोग किया उससे देश का युवा बेहद ही नराज दिखा। राहुल गांधी की नजर में भले ही देश का युवा कच्चा और नासमझ हो, लेकिन आदर्शवादी राहुल गांधी के संदेश में छिपा सीयासत की गंध युवाओ को महसूस करते देर नही लगी। वह अच्छी तरह समझ गए है कि राहुल गांधी युवाओं को सीख देने के बहाने कांग्रेस के ऐजेंङे को ही आगे बढा रहे है।

वैसे भी अगर देखा जाए तो अभी राहुल की प्रतिभा प्रकट नहीं हुई है। अगर राहुल गांधी के सारे प्रकरण पर गौर किया जाए तो ऐसा लगता है कि उनकी छवि बनाई ज्यादा जा रही है और उसमें स्वाभाविकता कम ही दिखती है। मनमोहन सिह जहां भारत के विदेशी निवेश और उदारीकरण के सबसे बङे झंङाबरदार है वही राहुल की छवि ऐसी बनाई जा रही जैसे उदारीकरण के इस आंधी में वह आदिवासियों, किसानों और दबे कुचलों के सबसे बङे खैरख्वाह है। इस पूरे प्रकरण को देखकर ऐसा नही लगता कि यह पूरा मामला स्वाभाविकता से परे है, नही तो आखिर क्या कारण है कि जिन मनमोहन सिंह की अमीरों के हित वाली कॉरपोरेट बाजार प्रणाली और अमेरिका समर्थीत नीतियां जगजाहिर है वहीं काग्रेस आलाकमान के पसंदीदा प्रधानमंत्री है ? हालांकि राहुल गांधी इसके उलट उन्ही नीतियों और कार्यक्रमों कि खिलाफत कर अपनी छवि चमका रहे है। गौर करने वाली बात है कि जबसे राहुल गांधी ने राजनीति में कदम रखा है तब से वह अपनी सुविधा के प्रश्न चुनते है और वह उसी पर बात करते है। असुविधा के सारे सवाल सरकार के हिस्से। तभी तो राहुल गाधी 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले, बढती मंहगाई, पेट्रोल डीजल की कीमतों पर कोई बात नहीं करते, वह भोपाल त्रासदी पर भी कुछ नही कहते, कश्मीर हो अथवा परमाणु करार का मुद्दा सभी पर खामोश रहते है। अपनी सरकार के मंत्रीयों के भ्रषटाचार और राष्ट्रमंडल खेलों में मचे बवाल पर भी चुप रहते है और तो और वह आतंकवाद और नक्सलवाद के सवालों पर अपनी सरकार के नेताओं के द्वंद्व पर भी चुप्पी रखते है। यानि यह उनकी सुविधा है कि देश के किस प्रश्न पर अपनी राय रखें। इन सबके बावजूद वह देश के सामने मौजूद इन कठिन सवालों से बचकर चल रहे है। और इन सवालों को लेकर देश का युवा सङक पर उतर रहा है तो क्या गलत कर रहा है। यहां आम जनता के बारे में न कहकर युवाओं के बारें में इसलिए कह रहा हूं कि राहुल गांधी अपने को युवाओं का खैरख्वाह कहलाना पसंद करते है, और कांग्रेस उनको इन्ही देवत्व के गुणों से लैस करके सियासत के मैदान में उतारना चाहती है। लेकिन एक लोकतांत्रिक देश में जनता के बीच वहीं पूजा जाएगा जो जनता के दिलों का सम्राट बनेगा। और कांग्रेस को अपनी इस ब़ाजीगरी भरी नीतियों पर अभी इतराना शायद जल्दबाजी होगी।