फुटबॉल ये नाम हमलोगों के लिए अभी कुछ दिनों पहले बेगाना सा लगता था, और ऐसा होना स्वाभाविक था। क्योंकि हमने फुटबॉल में कौन सा बङा तीर मार लिया है। फुटबॉल विश्व कप शुरू हुए 79 साल हो गए है, हम अभी उसमें क्वालिफाई भी नहीं कर पाए, और अगले कई दशकों तक तो इसकी उम्मीद भी करना एक बङी मूर्खता होगी। ओलंपिक में खेले हुए 49 साल गुजर चुके हैं लेकिन अब इसमें भी क्वालिफाई करने के आसार नजर नहीं आ रहे है।
अब तो हमारी स्थिति यह हो गई है कि दक्षिण एशियाई देशों में भी हम नहीं टिकते हैं। लेकिन नेहरू गोल्ड कप की सफलता से ऐसा लगने लगा है कि हमारी फुटबॉल पटरी पर आ सकती हैं। शायद नेहरू कप कि जीत से भारतीय फुटबॉल की तस्वीर बदल जाए, इसे प्रायोजक मिले, इसमें पैसा आए और अंततः खिलाङियों का रूझान बढ़े। लेकिन यहां पर यह बात साफ है कि 1950 से 1960 का जो हमारा स्वर्णिम दौर था, वह फिर से वापस नहीं आ सकता है। एशिया की महाशक्ति बनकर फिर से चैंपियन बनना अब भारत के बूते की बात नहीं है। इससे साफ जाहिर है कि हमारा घरेलू फुटबॉल का ढ़ांचा कितना बिगङा हुआ है, इसे अंतराष्ट्रीय स्तर का बनाने के चक्कर में हमने इसे निम्न स्तर का बना दिया। साथ ही कई अच्छे टूर्नामेंटों की बलि चढ़ा दी, देश को चैंपियन खिलाड़ी देने वाले फेडरेशन कप को भी गर्त में डाल दिया क्योंकि हमें तो राष्ट्रीय फुटबॉल लीग को ऊंचाईयों तक ले जाना था, लेकिन ये भी न हो सका।
आज हम जिस नेहरू गोल्ड कप की सफलता की खुशी मना रहे है उसका भी आयोजन एक दशक के बाद हुआ है। है। प्रायोजकों की कमी और कुछ अन्य कारणों से 1997 से 2007 तक इस टूर्नामेंट का आयोजन नहीं हो सका था। बॉब हॉटन के 2007 में कोच बनने के साथ इसे दोबारा शुरू किया गया। पिछले दो संस्करणों से भारत की सार्वजनिक क्षेत्र की अग्रणी कंपनी-तेल व प्राकृतिक गैस आयोग (ओएनजीसी) इसे प्रायोजित कर रही है । सन् 1982 में जब यह टूर्नामेंट शुरू हुआ था तो इसमें दुनिया की चोटी की टीमों ने शिकरत किया था। इटली, अर्जेंटीना, कैमरून, डेनमार्क, घाना, उरूग्वे जैसी दुनिया की नामचीन देशों की टीमों ने भाग लिया। लेकिन बाद में निरन्तर अंतराल पर इस टूर्नामेंट के न होने से इनकी भी शिकरत करने की इच्छा जाती रही। इस बार फिर टूर्नामेंट भारत ने जीता जरूर है लेकिन इसमें शिकरत करने वाली टीमों पर निगाह डालें तो वे विश्व स्तर की टीमों के सामने कहीं नहीं टिकती हैं। इसलिए इस सफलता जश्न मनाना अभी जल्दबाजी होगी। यह बात आने वाले वर्षों में ही तय होगा की भारत की स्थिति एशिया और विश्व फुटबॉल में क्या होगी।
अगर हम कोच की तरफ देखें तो यूगोस्लावियाई कोच के. मिलोवान के बाद इंग्लिश कोच बॉब हॉटन ही ऐसे कोच है जिनसे खिलाङी खुश है। वास्तव में हॉटन ने भारतीय खिलाङियों में जीत की ललक बढ़ाई उनके खेल को आक्रामक बनाया, सकारात्मक फुटबॉल का अंदाज सिखाया, नतीजा नेहरू गोल्ड कप के रूप में हमारे सामने है।
1982 | उरूग्वे | चीन | 2-0 |
1983 | हंगरी | चीन | 2-1 |
1984 | पोलैंड | चीन | 1-0 |
1985 | सोवियत संघ | यूगोस्लाविया | 2-1 |
1986 | सोवियत संघ | चीन | 1-0 |
1987 | सोवियत संघ | बुल्गारिया | 2-0 |
1988 | सोवियत संघ | पोलैण्ड | 2-0 |
1989 | हंगरी | सोवियत संघ | 2-1 |
1991 | रोमानिया | हंगरी | 3-1 |
1993 | उतरी कोरिया | रोमानिया | 2-0 |
1995 | इराक | रूस | 1-0 |
1997 | इराक | उज्बेकिस्तान | 3-1 |
2007 | भारत | सीरिया | 1-0 |
2009 | भारत | सीरिया | 5-4 |
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