आज जिस तरह से जद (यु) नेता सेक्युलर होने दंभ भर
रहे है और इसी सेक्युलरवादी होने के नाते वे नरेन्द्र मोदी पर निशाना साध कर प्रधानमंत्री
पद के लिए नरेन्द्र मोदी की दावेदारी खारिज कर रहे है और परोक्ष रूप से नीतीश की दावेदारी प्रस्तुत
कर रहे है। लेकिन यहाँ सवाल
यह उठता है कि एक दशक पहले जद (यु) नेताओं को क्या सेक्युलरवाद याद नही था। याद कीजिए, 2002 फरवरी में जब
गुजरात दंगा हुआ तब नीतीश कुमार बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार में रेल मंत्री थे
और किसी ने शायद ही सुना हो कि उन्होंने इसके विरोध में सार्वजनिक रूप से एक भी शब्द बोले हो। क्या उस समय उन्हे अल्पसंख्यको की
याद नहीं आई थी।
आज नीतीश कुमार बिहार के प्रगति के
अगुवा बने हुए है इसी प्रगति के कारण बिहार की जनता ने उन्हे प्रचंड बहुमत दिया
है। लेकिन क्या किसी ने यह सोचा है कि क्या सही में 2010 मे राजग को जो प्रचंड बहुमत
बिहार की जनता ने दिया था वह सिर्फ विकास के नाम पर था या फिर उसमें कहीं न कहीं उनके अंदर लालू के सत्ता में लौटने के डर की
भूमिका ज़्यादा रही है।
शायद नीतीश इसी जीत को लेकर भी
धीरे धीरे ग़लतफहमी का शिकार हो रहे है। मोदी का विरोध करके शायद उन्हे लगता है कि
अल्पसंख्यक वोट उन्हे मिलेगा, शायद हो भी सकता है और नहीं भी यह तो भविष्य ही तय
करेगा। अगर मिला भी तो क्या गारंटी है कि एक मुश्त अल्पसंख्यक वोट उन्हे मिलेगा।
लेकिन इस बात की गारंटी जरुर है कि भाजपा से अलग होने पर अगङी जाती का वोट बैंक
उनसे छिटक जाएगा। यहां पर यह बात गौर करने लायक है कि जब 1996 में जब समता पार्टी (आज की जद (यु)) बीजेपी के साथ जुड़ी तो उसके पास मात्र 6 सांसद थे और बीजेपी के पास बिहार में 18 सांसद थे।
आज बीजेपी के बिहार में 12 सांसद हैं और जद (यू) के 20 जाहिर है पिछले 16 सालों में जद (यू) कम-से-कम बिहार में बीजेपी का ‘बड़ा भाई’ बन चुका है। नीतीश और बीजेपी दोनों को उस समय लालू का अजेय किला
ढाहने के लिए एक-दूसरे के साथ की जरूरत थी, लिहाजा यह गठबंधन
हुआ और धर्मनिरपेक्षता को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। तब आज क्यों धर्मनिरपेक्षता का रोना रोया
जा रहा है।