रविवार, 10 नवंबर 2013

दोहरा शतक फिर भी नाबाद

जब तक यह लेख आपलोगों पढ रहे होगें तबतक तो क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन रमेश तेंदुलकर अपना आखरी टेस्ट मैच खेल चुके होगें और साथ ही इसे अलविदा कह भी कह देगें। जब भी विश्व के बेहतरीन क्रिकेटरों का नाम आता है तो सचिन तेंदुलकर को इस श्रेणी में शीर्ष स्थान पर रखा जाता है। क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन रमेश तेंदुलकर ने यूं तो अपने जीवन में कई रिकॉर्ड बनाए और तोड़े हैं। जिसे तोड़ पाना शायद किसी के लिए भी टेढ़ी खीर साबित हो सकता है. क्रिकेट मैदान में भले ही सचिन अपने प्रतिद्वंदियों को टिकने का मौका नहीं देते लेकिन यह बात भी सच है कि ना सिर्फ भारत में बल्कि विश्व के अन्य देशों में भी सचिन के चाहने वालों की कोई कमी नहीं है। सचिन तेंदुलकर की लोकप्रियता का आलम यह है कि टीम इंडिया के अन्य खिलाड़ियों के साथ-साथ विश्व की लगभग सभी क्रिकेट टीमों के अलवा और भी दूसरे खेल खिलाड़ी उन्हें एक महान क्रिकेटर का दर्जा देते हैं। इतना ही नहीं वह हर उभरते हुए खिलाड़ी के मुख्य प्रेरणास्त्रोत भी हैं। जुनून के साथ मैदान में उतरने वाले सचिन तेंदुलकर स्वभाव से बेहद धार्मिक और परिवार के प्रति पूर्ण समर्पित हैं
सचिन रमेश तेंदुलकर का शुरुआती जीवन
24 अप्रैल, 1973 को सचिन तेंदुलकर का जन्म मुंबई के एक राजापुर सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। सचिन के पिता रमेश तेंदुलकर, मराठी भाषा के एक प्रतिष्ठित उपन्यासकार और संगीतकार सचिन देव बर्मन के बहुत बड़े प्रशंसक थे, इसीलिए उन्होंने सचिन को उनका नाम दिया था। सचिन ने शारदाश्रम विद्यामंदिर में अपनी शिक्षा ग्रहण की. स्कूल में पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने वहीं कोच रमाकांत अचरेकर के सान्निध्य में अपने क्रिकेट जीवन का आगाज किया। तेज गेंदबाज बनने के सपने को सजोय हुये उन्होंने एम.आर.एफ. पेस फाउंडेशन के अभ्यास कार्यक्रम में शिरकत की पर वहां तेज गेंदबाजी के कोच डेनिस लिली ने उन्हें पूर्ण रूप से अपनी बल्लेबाजी पर ध्यान केन्द्रित करने की सलाह दी। सचिन के बड़े भाई अजीत तेंदुलकर ने ही उन्हें क्रिकेट में कॅरियर बनाने के लिए प्रेरित किया था.


उत्कृष्ट क्रिकेटर के रूप में सचिन
5 जनवरी 1971 को जब एक दिवसीय क्रिकेट की शुरूआत हुई थी तो किसी ने यह सोचा भी नही होगा कि क्रिकेट के भगवान समझे जाने वाले रिकॉर्डो के बादशाह सचिन तेंदुलकर क्रिकेट कि दुनिया का लगभग हर रिकॉर्ड अपने नाम कर लेगे 29 जुलाई 2010 को उन्होने श्रीलंका के खिलाफ 203 रन बनाकर डॉन ब्रैडमैन को 150 से अधिक स्कोर बनाने के रिकॉर्ड को तोड दिया यह सचिन का 19वां मौका था जब सचिन ने क्रिकेट में 150 से अधिक का स्कोर बनाया। इस के साथ ही डॉन ब्रैडमैन के क्रिकेट में 18 बार 150 से अधिक रन बनाने के रिकार्ड को सचिन ने तोड दिया और ब्रायन लारा के 19 बार 150 रनो से अधिक के रिकार्ड की बराबरी कर ली। क्रिकेट एक ऐसा खेल है जिस में मैच की आखिरी गेंद पर भी चमत्कार हो सकता है। आज से लगभग चौबीस साल पहले 16 साल के सचिन ने जब पाकिस्तान की धरती पर अपने कैरियर की शुरूआत की थी तब क्रिकेट के विषेषज्ञो ने सचिन को तुनक मिजाज क्रिकेटर बताया था। और जोखिम वाले शाट्स खेलने की उन की आदत को देखते हुए उस वक्त क्रिकेट के समीक्षक अन्दाजा लगा रहे थे की ये बच्चा क्रिकेट के मैदान पर लम्बी रेस का घोडा नही बन पायेगा। लेकिन अपने चौबीस साल के कैरियर में जितनी खूबसूरत और यादगार पारिया सचिन ने क्रिकेट के मैदानो में खेली है वो गवाह है इस महान बल्लेबाज की गवाही देने के लिये की आज तक के क्रिकेट इतिहास में ऐसा महान बल्लेबाज दुनिया में पैदा नही हुआ।
ये सब यू अचानक ही नही हुआ। अपने क्रिकेट गुरू रमाकांत अचरेकर की देख रेख में सचिन ने मुम्बईया उमस और कडी धूप में घन्टो अभ्यास किया। वैसे एक हकीकत यह भी है कि मेहनत और अभ्यास तो सभी करते है फिर सारे क्रिकेटर सचिन क्यो नही बने तो यहां ये कहना पडता है कि सचिन में एक मैजिक टच दिखता है। तकनीक ,निरंतरता ,और मजबूत एकाग्रता सचिन में अपने खालिसपन के साथ मौजूद है। आज चौबीस साल के उन के क्रिकेट कैरियर में दुनिया का कोई भी गेंदबाज उन की कमी को नही भाप सका। उन की मैदान पर एकाग्रता देखने वाली होती है। शतक पूरा करने के बाद भी ऐसा महसूस होता है कि सचिन ने पारी की शुरूआत अभी की है। पीठ की चोट हो कंधे की चोट या टखने की चोट सचिन की रनो की भूख कोई चोट नही रोक पाई। वन डे हो या टेस्ट क्रिकेट आज सचिन तेन्दुलकर रनो के माऊन्ट ऐवरेस्ट पर बैठे है। क्रिकेट में शतको के  शतक का विश्व रिकार्ड इन के नाम दर्ज हो गया है। ये शतक एक ओर जहॅा उन्हे रन मशीन का खिताब देते है। साथ ही क्रिकेट की दुनिया में अकेले बल्लेबाज की बादशाहत का सचिन उदाहरण है।
सचिन ने अर्न्तराष्ट्रीय वन-डे क्रिकेट में पहली डबल सेन्चुरी बनाकर क्रिकेट के आसमान पर दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ 24 फरवरी 2010 को दर्शकों से खचाखच भरे ग्वालियर के रूप सिॅह स्टेडियम में हिन्दुस्तान का नाम सुनहरे लफजो में लिख दिया। इस महान बल्लेबाज ने अपनी इस ऐतिहासिक पारी में 147 गेंदो का सामना कर 25 चौके 3 छक्के लगाये। इस यादगार पारी में सचिन ने कई रिकार्ड तोडे। उन्होने भारत के पूर्व कप्तान कपिल देव के नाबाद 175 रन की पारी का स्कोर पार किया फिर जॉक कैलिस की गेंद पर चौका जमाकर अपने 186 रन के रिकार्ड की बराबरी की जो इन्होने 1999 में हैदराबाद में न्यूजीलैण्ड के खिलाफ बनाया था।सचिन ने अपनी इसी पारी में पाकिस्तान के सईद अनवर के 1997 में भारत के खिलाफ चैन्नई में व जिम्बाब्वे के चार्ल्स कावेंट्री में बंगला देश के खिलाफ 2009 में बनाये नाबाद 194 रन के रिकार्ड को तोडकर मास्टर ब्लास्टर ने वायने पार्नेल की गेंद पर दो रन लेकर विश्व रिकार्ड अपने नाम किया और फिर लागवेल्ट के अन्तिम ओवर में एक रन लेकर 200 रन के जादुई संख्या को छूकर क्रिकेट का ये भगवान रनो के एवरेस्ट पर पहुंच गया।                                                            
क्रिकेट के मैदान में रोज रोज खिलाडियो में तू तू मै मै सुनने और देखने को मिलती है पर सचिन को आज तक किसी भी क्रिकेट प्रेमी ने संयम खोते या किसी छोट या बडे खिलाडी के साथ उलझते हुए नही देखा होगा। विश्व रिकाडो के अलावा सचिन के व्यवहार ने भी उन्हे महान बनाया है। सचिन के कैरियर में अम्पायरों द्वारा कई बार उन्हे गलत आउट दिया गया और सचिन ने हर बार अम्पायर के गलत निर्णय का भी स्वागत किया,  मान रखा और बिना कुछ कहे पवेलियन चले गये। सचिन के खेल और व्यक्तित्व का ही जादू है कि डॉन बै्रडमेन, शेन वॉर्न, गैरी सोबर्स, ब्रायन लारा ,रिचर्ड हेडली,  रिचडर्स,  सईद अनवर, जावेद मियॉदाद,  जैसे क्रिकेट के दिग्गज सचिन के कायल रहे है। सचिन ने खेल को हमेशा खेल की भावना से खेला है।
आज सचिन बुलन्दी के जिस शिखर पर पहुच चुके है उन्हे वहा तक पहुंचाने में सचिन के आलोचको का बहुत बडा योगदान है क्योकि जब जब मीडिया या क्रिकेट पंडितो ने सचिन के खेल की ये कहकर आलोचना की के अब सचिन थक गये है। उन में वो क्षमता नही रही उन का खेल फीका पडने लगा है। सचिन दबाव के दौरान अपना बेहतर प्रर्दशन नही कर पाते है और उन में लम्बी पारिया खेलने की क्षमता अब नही रही है तब तब सचिन और अच्छा खेले है। वर्ल्ड कप जितने का सपना पूरा होने पर उनके साथी खिलाड़ीयों ने उन्हें कंधों पर उठा लिया ऐसा सम्मान विरलय ही किसी को मिलता है। सचिन क्रिकेट को क्रिकेट का भगवान कहना प्रशंसको की भावना हो सकता है लेकिन उनके द्वारा क्रिकेट के मैदान पर प्रदर्शित किया गया खेल को कोई भूल नहीं सकता चाहे उनके प्रशंसक हो या आलोचक।
सचिन तेंदुलकर को प्रदान व्यक्तिगत सम्मान और उनकी उपलब्धियां
  • सर गार्फील्ड सोबर्स ट्रॉफी फॉर क्रिकेटर ऑफ द ईयर – 2010
  • पद्म विभूषण – 2008
  • आइसीसी वर्ल्ड ओडीआई इलेवन 2004 – 2007
  • राजीव गांधी अवॉर्ड (खेल) – 2005
  • प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट – 2003 क्रिकेट वर्ल्ड कप
  • महाराष्ट्र भूषण अवॉर्ड – 1999
  • पद्मश्री – 1999
  • अर्जुन अवॉर्ड – 1994
कीर्तिमान स्थापित
  • मीरपुर में बांग्लादेश के खिलाफ सचिन तेंडुलकर ने अपना 100वां शतक पूरा कर लिया।
  • एकदिवसीय अन्तरराष्ट्रीय क्रिकेट के इतिहास में दोहरा शतक जड़ने वाले पहले खिलाड़ी बने।
  • एकदिवसीय अन्तरराष्ट्रीय मुक़ाबले में सबसे ज्यादा रन (18000 से अधिक)
  • एकदिवसीय अन्तरराष्ट्रीय मुक़ाबले में सबसे ज्यादा 49 शतक
  • एकदिवसीय अन्तरराष्ट्रीय के विश्व कप मुक़ाबलों में सबसे ज्यादा रन
  • टेस्ट क्रिकेट में सबसे ज्यादा शतक (51)
  • टेस्ट क्रिकेट में सर्वाधिक रनों का कीर्तिमान (15000 से अधिक)। 
  • एकदिवसीय अन्तरराष्ट्रीय मुक़ाबले में सबसे ज्यादा मैन आफ् द सीरीज
  • एकदिवसीय अन्तरराष्ट्रीय मुक़ाबले में सबसे ज्यादा मैन आफ् द मैच
  • अन्तरराष्ट्रीय मुक़ाबलो में सबसे ज्यादा 30000 से अधिक रन बनाने का कीर्तिमान्
रेकॉर्ड, जो सचिन से रह गए दूर

  • सचिन ने टेस्ट क्रिकेट में 6 बार डबल सेंचुरी बनाई, लेकिन वह कभी 300 रन का आंकड़ा नहीं छू सके।
  • सचिन कभी भी एक टेस्ट मैच की दोनों पारियों में सेंचुरी लगाने का रेकॉर्ड नहीं बना सके।
  • सचिन कभी लगातार तीन टेस्ट मैच में सेंचुरी नहीं लगा सके।
  • एक ही सीरीज में 500 रन बनाना भी उनकी पहुंच से दूर ही रहा। उनके नाम सबसे ज्यादा 493 रन का रेकॉर्ड है।
  • सचिन कभी एक ही सीरीज में तीन सेंचुरी नहीं लगा सके।
  • सचिन क्रिकेट के मक्का कहे जाने वाले लॉर्ड्स के मैदान कभी सेंचुरी नहीं लगा सके। यहां उनका सर्वोच्च स्कोर 37 रन रहा जो उन्होंने जुलाई 2007 में बनाया।
  • सचिन आगामी सीरीज में अपने 200 टेस्ट मैच पूरे करेंगे, लेकिन वह लगातार 100 टेस्ट मैच खेलने का रेकॉर्ड नहीं बना सके।
  • सचिन ने भारत के लिए टेस्ट मैचों में सबसे ज्यादा 14 मैन ऑफ द मैच अवॉर्ड जीते, लेकिन वह वर्ल्ड रेकॉर्ड से काफी पीछे रहे।
  • सबसे ज्यादा मैन ऑफ द सीरीज का भारतीय रेकॉर्ड सचिन और सहवाग (5-5 बार) के नाम है, जबकि वर्ल्ड रेकॉर्ड श्रीलंका के मुरलीधरन के नाम (11 बार) है।

रविवार, 18 अगस्त 2013

राष्ट्रीय खेल या राष्ट्रीय खेद

सौ करोड़ के भारत में हाकी ने दम तोड़ दिया है।  भारत के लिए इससे ज्यादा शर्म की बात क्या हो सकती है की जो भारत का राष्ट्रीय खेल है , जिस खेल की बदौलत भारत ने कभी अन्तराष्ट्रीय जगत में नाम कमाया था, उसी खेल की वजह से भारत को आज बेशर्मी झेलनी पड़रही है |
हमारे देश के पास आठ ओलम्पिक स्वर्ण पदकों का उत्कृष्ट रिकॉर्ड है। भारतीय हॉकी का स्वर्णिम युग 1928-56 तक था जब भारतीय हॉकी दल ने लगातार 6 ओलम्पिक स्वर्ण पदक प्राप्त किए। भारतीय हॉकी दल ने 1975 में विश्व कप जीतने के अलावा दो अन्य पदक (रजत और कांस्य) भी जीते। भारतीय हॉकी संघ ने 1927 में वैश्विक संबद्धता अर्जित की और अंतरराष्ट्रीय हॉकी संघ (एफआईएच) की सदस्यता प्राप्त की। इस प्रकार भारतीय हॉकी संघ के इतिहास की शुरूआत ओलम्पिक में अपनी स्वर्ण गाथा आरंभ करने के लिए की गई। इस दौरे में भारत को 21 मैचों में से 18 मैच भारत ने जीते और प्रख्यात खिलाड़ी ध्यान चंद सभी की आंखों में बस गए जब भारत के कुल 192 गोलों में से 100 गोल उन्होंने अकेले किए। यह मैच एमस्टर्डम में 1928 में हुआ और भारत लगातार लॉस एंजेलस में 1932 के दौरान तथा बर्लिन में 1936 के दौरान जीतता गया और इस प्रकार उसने ओलम्पिक में स्वर्ण पदकों की हैटट्रिक प्राप्त की।
स्वतंत्रता के बाद भारतीय दल ने एक बार फिर 1948 लंदन ओलम्पिक, 1952 हेलसिंकी गेम तथा मेलबॉर्न ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीत कर हैटट्रिक प्राप्त की। इस स्वर्ण युग के दौरान भारत ने 24 ओलम्पिक मैच खेले और सभी 24 मैचों में जीत कर 178 गोल बनाए (प्रति मैच औसतन 7.43 गोल) तथा केवल 7 गोल छोड़े। भारत को 1964 टोकियो ओलम्पिक और 1980 मॉस्को ओलम्पिक में दो अन्य स्वर्ण पदक प्राप्त हुए।
भारत ने ओलंपिक में लगातार आठ स्वर्ण पदक जीत कर जो पहचान बनायी थी, आज भारत सरकार और खेल प्रशासन की वजह से वो पहचान लगभग खो सी गयी है | हॉकी का जो अपमान देश में हुआ, उसकी मिसाल शायद कहीं ढूंढें नहीं मिलेगी| भारतीय हॉकी टीम चीन में चल रही एशियन चैम्पियनशिप जीत कर लौटी तो हॉकी इंडिया ने विजयी टीम के प्रत्येक खिलाड़ी को २५-२५ हज़ार रुपये ईमान में देने की घोषणा कर दी| हॉकी के प्रति बरते जा रहे इस सौतेले व्यवहार से क्षुब्ध विजेता टीम के खिलाड़ियों ने हॉकी इंडिया की इस पेशकश को ठुकरा दिया| जैसे ही खिलाड़ियों ने इनामी राशि को ठुकराया; पूरे देश में हॉकी इंडिया की आलोचना होने लगी| इससे आजिज हॉकी इंडिया के महासचिव नरेन्द्र बत्रा ने हॉकी खिलाड़ियों को लालच से दूर रहने की हिदायत दे डाली| उनका कहना था कि खिलाड़ियों को अपने खेल पर ही ध्यान देना चाहिए और जो मिल रहा है उसे स्वीकार कर लेना चाहिए| मगर, उनका यह उपदेश न तो खिलाड़ियों को रास आया और न ही देश को| गाहे-बगाहे सरकार की भी आलोचना होने लगी तो खेल मंत्री अजय माकन को मैदान में उतरना ही पड़ा| उन्होंने मीडिया को स्पष्ट किया कि खिलाड़ियों को इनाम देने का फैसला हॉकी इंडिया का था न कि सरकार का| सरकार सभी रुपये खिलाड़ियों के कोचिंग कैंप और ट्रेनिंग पर खर्च करती है| उनका कहना है कि सरकार ने पिछले 6 माह में हॉकी इंडिया पर 7.81 करोड़ रुपये की रकम खर्च की है| इसमें 5.97 करोड़ रुपये कोचिंग कैंप, 1.75 करोड़ रुपये विदेशी दौरों और 8.75 लाख रूपए विदेशी विशेषज्ञ पर किया गया खर्च शामिल है| हो सकता है कि माकन का कहना सही हो मगर क्या वे यह नहीं जानते कि खेल में विजेता टीम को उचित इनाम मिलना ही चाहिए और खेल मंत्री होने के नाते उनकी जिम्मेदारी है कि वे स्वयं पहल कर विजेता टीम का उचित "सत्कार" करते|
हॉकी को भारत का राष्ट्रीय खेल कहा जाता है| हॉकी ने ही कई दशकों तक ओलंपिक खेलों में भारत का झंडा बुलंद किया हुआ था| हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद को कौन भूल सकता है जिन्होंने अपने खेल कौशल से भारतीय हॉकी को बुलंदी की ऊँचाइयों तक पहुँचाया था| मगर व्यावसायिकता की चकाचौंध और विदेशी कंपनियों के भ्रामक प्रचार-प्रसार ने हॉकी को खेल परिदृश्य से हाशिये पर ला पटका| रही-सही कसर सरकारी नीतियों ने पूरी कर दी|
दो दशकों से भारत में राष्ट्रीय खेल हॉकी के प्रति सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं ने उदासीनता का रवैया अख्तियार कर रखा है| क्रिकेट को ही खेल मानने की मानसिकता ने भी हॉकी की लोकप्रियता को जमकर आघात पहुँचाया है| भद्रजनों के इस खेल का विश्व-विजेता बनने के पश्चात भारतीय क्रिकेट टीम पर केंद्र एवं राज्य सरकारों ने रुपयों सहित अनेक सुविधाओं की बरसात कर दी थी| यहाँ तक कि रेल मंत्रालय ने सभी विजेता खिलाड़ियों को प्रथम श्रेणी वातानुकूलित डिब्बे में आजीवन मुफ्त यात्रा हेतु रेलवे पास प्रदान किए थे| बीसीसीआई ने भी प्रत्येक खिलाड़ी को १ करोड़, प्रत्येक सहायक कर्मी को ५० लाख और प्रत्येक चयनकर्ता को २५ लाख की नगद राशि इनाम के रूप में दी थी|
वैसे हॉकी इंडिया की इस बात में तो दम दिखता है कि चूँकि बीसीसीआई अमीर क्रिकेट बोर्ड है और पूरे विश्व में उसकी तूती बोलती है; जिस वजह से क्रिकेट खिलाड़ियों पर रुपयों की बरसात होना स्वाभाविक है| मगर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हॉकी की इस दुर्दशा के पीछे भी हॉकी इंडिया की उदासीनता ही है| क्या हॉकी इंडिया में इतनी ताकत भी नहीं बची कि वह सरकार पर दबाव डालकर हॉकी खिलाड़ियों के लिए बेहतर सुविधाओं की मांग कर सके?
कहते हैं जब कोई भी संस्थान या व्यक्ति अपने पतनके दौर से गुज़रता है तो एक दिन उसका उत्थान भी होता है, यानी उतार-च़ढाव की स्थिति सब पर लागू होती है। अगर नहीं लागू होती है तो वह है हमारी भारतीय हॉकी टीम, जी हां, दुनिया में हर बदहाल संस्था और टीम के दिन बहुर सकते हैं, लेकिन भारतीय हॉकी टीम के बारे में यही कह सकते है कि यह फिर से कामयाबी का सवेरा शायद ही कभी देख सके। बात स़िर्फ खिताबों के जीतने की ही नहीं, बल्कि हॉकी की संस्थात्मक स़डन से है। आज हॉकी के अंदर और बाहर का पूरा तंत्र इस क़दर स़ड चुका है कि जब भी हॉकी से जु़डी खबर आती है, तो कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर होता है जिससे हमारे राष्ट्रीय खेल की फज़ीहत हो जाती है। अंतरराष्ट्रीय मुक़ाबलों में शर्मनाक हार झेलना तो बहुत पुरानी बात हो चुकी है। अब हम अपने देश में ही आपसी ल़डाई देख रहे हैं। कभी कोच के सेक्स स्कैंडल हॉकी को शर्मसार करते हैं तो कभी खिला़डी खुद के मेहनताने को लेकर स़डक पर विरोध प्रदर्शन के लिए उतर आते हैं। इतना ही नहीं टीम के खिलाडि़यों के आपसी संबंधों पर भी विवाद बची खुची कसर पूरी कर देते हैं। कुल मिलाकर हॉकी आज अपने निम्नतम दौर से गुज़र रही है, लेकिन मुश्किलें हैं कि फिर भी खत्म होने का नाम ही नहीं लेती हैं। अभी ताज़ा मामला चैम्पियंस ट्रॉफी और ओलंपिक क्वालीफाइंग टूर्नामेंट की मेज़बानी को लेकर उठ । इस बात से तो सभी वाक़ि़फ हैं कि पिछले कुछ दिनों से अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ (एफआईएच), हॉकी इंडिया (एचआई) और भारतीय हॉकी महासंघ (आईएचएफ) के बीच हुए आपसी समझौते से नाराज़ चल रहा था। इस बात का अंदेशा लगाया जा रहा था कि अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ (एफआईएच) ज़रूर कोई न कोई ठोस क़दम उठाएगा, ऐसा ही हुआ। हॉकी इंडिया (एचआई) और भारतीय हॉकी महासंघ (आईएचएफ) के बीच हुए आपसी समझौते से नाराज़ अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ (एफआईएच) ने भारत से चैंपियंस ट्रॉफी और ओलंपिक क्वालीफाइंग टूर्नामेंट की मेज़बानी छीन ली। उसके इस क़दम ने न स़िर्फ हॉकी संघ की फज़ीहत की है, बल्कि इससे देश की भी फज़ीहत झेलना पङा।

हाकी का स्वर्णिम इतिहास यह कहता है कि जब तक हाकी खिलाडि़यों के हाथ में थी तब तक उसे कोई दूसरा देश छू नहीं पाया जैसे ही हाकी राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और खेल के दलालों के हाथों में पहुंच गई हाकी अपना मूल खेल खो बैठी। अगर इस खेल की बदहाली यूं ही जारी रही तो बहुत खेद के साथ कहना प़ड सकता कि हॉकी स़िर्फ स्कूल के किताबों तक ही राष्ट्रीय खेल रह जाएगा। और हम भी बङे शान से अपने आनेवाली पीढी को कहेंगें हाकी में हमनें आठ ओलम्पिक स्वर्ण पदक जीते है, तो शायद ही आनेवाली पीढी इस बात पर भरोसा करेगी।   

शुक्रवार, 14 जून 2013

राष्ट्रीय राजनीतिकक्षेत्र में मोदी

काफी जद्दोजहद और कश्मकश के बाद भाजपा अटल – आडवाणी के युग से बाहर निकल पीढी का बदलाव हो गया। अटल बिहारी वाजपेयी स्वास्थ्य कारणों से राजनीतिक परिदृश्य से बाहर बाहर हो गए जबकि आडवाणी अपनी प्रधानमंत्री बनने की लोलुपसा के शिकार हो गए। गोवा कार्यकारणी के दो दिवसीय बैठक में काफी उठा – पटक के बाद आखिरकार भाजपा ने अपने मिशन 2014 की कमान अपने सबसे लोकप्रिय नेता नरेन्द्र दामोदरदास मोदी  के हाथो में थमा दी।  
          नरेन्द्र मोदी का चुनाव प्रचार अभियान का प्रमुख बनना प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी दावेदारी पर परोक्ष रुप से मुहर लगने जैसा है। वह जिन हलात में चुनाव प्रचार अभियान समिति के प्रमुख बने उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके सामने कई तरह की चुनौतियाँ है। क्योंकि जिस तरह से भाजपा में चुनाव प्रचार अभियान समिति के प्रमुख का फैसला करने से पहले कलह की जो स्थिती बनी उससे मोदी के समक्ष यह और अच्छे से स्पष्ट हो जाना चाहिए कि उनकी पहली जरुरत पार्टी को एक सूत्र में बांधने की है और जाहिर है दूसरी जरुरत चुनाव प्रचार के जरिये ऐसा माहौल पैदा करने की है कि भाजपा हर लिहाज से कांग्रेस का कहीं अधिक मजबूत विकल्प नजर आने लगे।  
      अब जब आम चुनाव में बहुत कम समय रह गया है और एक विचार जनता की अदालत  फैसला इसी साल हो जाने का भी है तब राष्ट्रीय राजनीति का कोहरा धीरे – धीरे छंटने लगा है। अपने जयपुर अधिवेशन में जहाँ काग्रेस ने राहुल गांधी को अपना उपाध्यक्ष निर्वाचित करके उन्हे भावी प्रधानमंत्री के रुप में प्रस्तुत करने के संकेत दिये थे वहीं भाजपा ने गोवा मे मेदी को चुनावी कमान थमा दी। इस प्रकार चुनाव 2014 देश की दो बङी पार्टीयों के बीच की टक्कर न होकर दो व्यक्तित्वो के बीच की टक्कर होगी। भारतीय इतिहास शायद ऐसा पहली बार होगा।
      व्यक्तित्व का यह मामला श्रम बनाम सामंत का भी है। जहाँ नरेन्द्र मोदी चाय के ठेले से अपने पेशेवर जिन्दगी का आगाज करके आज एक कुशल राजनेता और सफल मुख्यमंत्री के साथ अच्छे प्रबंधंक के रुप में अपने आप को स्थापित किया है। उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष इतना वजनदार है कि उसके समानंतर चलने वाला उनका सांप्रदायिक चरित्र वाला पक्ष धीरे – धारे पीछे छूटता जा रहा है। पिथले दस बारह सालों में मोदी को खलनायक साबित करने के लिये जितने प्रयास देश और विदेश में किये गये वैसा शायद ही किसी राजनेता के लिए किया गया हो। इसके बावजूद मोदी की लोकप्रियता बढती जा रही है और हमलावरों के हथियार भोथरे साबित होते जा रहे है। मोदी नकारात्मकता में उलक्षने बजाय ध्येय की ओर बढते जा रहे है। आज स्थति यहाँ तक आ पहुची है कि यूरोपिय समुदाय से बहिष्कृत यह नेता उन्ही के देश में सम्मानित हो रहा है। अमेरिकी संसद में भी उनके पक्ष में आवाजें गुंजने लगी है। यह राजनीतिक विसात पर उनकी ठोस तथा दमदार चालों का परिणाम है।
      वहीं दूसरी ओर नेहरु गांधी की विरासत का झोला थामें राहुल गांधी है। जिन्होनें अपनी सरकार के नौ साल के लंबे कार्यकाल में किसी मंत्रालय तक की भी जिम्मेदारी न संभालकर न तो अपनी क्षमता का परिचय दिया और न ही कोई प्रशासनिक प्रशिक्षण लेना उचित समझा। हाँ राज्यों के चुनावों में अपनी पार्टी की बागडोर जरुर संभाली, लेकिन परीणाम पहले से कुछ अच्छे नहीं आये हाँ बुरे परिणामों से दो चार जरुर होना पङा। उनकी सबसे बङी राजनीतिक उपलब्धि यह रही कि चुनाव 2009 में वह उत्तर प्रदेश में पार्टी को उल्लेखनीय सफलता दिलाने में सफल रहे। लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में उनके धुआँधार प्रचार के बावजूद पार्टी दयनीय स्थिती में रही और तो और खुद के संसदीय क्षेत्र में भी पार्टी को भारी पराजय का सामना करना पङा।
      देश की आज जैसी दुर्दशा है उसमें बदलाव का एक मात्र भरोसा जनता को मोदी में नजर आ रही है। आखिर क्यों देशव्यापी लोकप्रियता वाला दूसरा कोई राजनेता नहीं है? अगर खबरिया चैनलो द्वारा कराये गए चुनाव पूर्व आकलन पर गौर करें तो भाजपा को 31 प्रतिशत मत मिलने की संभावना है इतना मत प्रतिशत 200 के करीब या उससे अधिक सीटें दिला सकता है भाजपा अगर अपना प्रधानमंत्री मोदी को घोषित कर देता है तो उसके वोट प्रतिशत और बढ सकते है साथ ही वोटों के ध्रुवीकरण को कारण कांग्रेस को भी वोटों के प्रतिशत में बढोतरी होगी। जिसका सीधा नुकसान क्षेत्रीय दलों को होगा तो मोदी को लेकर उनके अंदरखाने उथल पुथल की स्थिती होना लाज़मी है। लेकिन यह सब महज एक आकलन है।           

बुधवार, 20 जून 2012

सिर्फ वोट की राजनीति


     आज जिस तरह से जद (यु) नेता सेक्युलर होने दंभ भर रहे है और इसी सेक्युलरवादी होने के नाते वे नरेन्द्र मोदी पर निशाना साध कर प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी की दावेदारी खारिज कर रहे है और परोक्ष रूप से नीतीश की दावेदारी प्रस्तुत कर रहे है  लेकिन यहाँ सवाल यह उठता है कि एक दशक पहले जद (यु) नेताओं को क्या सेक्युलरवाद याद नही था। याद कीजिए, 2002 फरवरी में जब गुजरात दंगा हुआ तब नीतीश कुमार बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार में रेल मंत्री थे और किसी ने शायद ही सुना हो कि उन्होंने इसके विरोध में सार्वजनिक रूप  से एक भी शब्द बोले हो क्या उस समय उन्हे अल्पसंख्यको की याद नहीं आई थी।
     आज नीतीश कुमार बिहार के प्रगति के अगुवा बने हुए है इसी प्रगति के कारण बिहार की जनता ने उन्हे प्रचंड बहुमत दिया है। लेकिन क्या किसी ने यह सोचा है कि क्या सही में 2010 मे राजग को जो प्रचंड बहुमत बिहार की जनता ने दिया था वह सिर्फ विकास के नाम पर था या फिर उसमें कहीं न कहीं उनके अंदर लालू के सत्ता में लौटने के डर की भूमिका ज़्यादा रही है।
     शायद नीतीश इसी जीत को लेकर भी धीरे धीरे ग़लतफहमी का शिकार हो रहे है। मोदी का विरोध करके शायद उन्हे लगता है कि अल्पसंख्यक वोट उन्हे मिलेगा, शायद हो भी सकता है और नहीं भी यह तो भविष्य ही तय करेगा। अगर मिला भी तो क्या गारंटी है कि एक मुश्त अल्पसंख्यक वोट उन्हे मिलेगा। लेकिन इस बात की गारंटी जरुर है कि भाजपा से अलग होने पर अगङी जाती का वोट बैंक उनसे छिटक जाएगा। यहां पर यह बात गौर करने लायक है कि जब 1996 में जब समता पार्टी (आज की जद (यु)) बीजेपी के साथ जुड़ी तो उसके पास मात्र 6 सांसद थे और बीजेपी के पास बिहार में 18 सांसद  थे। आज बीजेपी के बिहार में 12 सांसद हैं और ज (यू) के 20 जाहिर है पिछले 16 सालों में ज (यू) कम-से-कम बिहार में बीजेपी का बड़ा भाई बन चुका है। नीतीश और बीजेपी दोनों को उस समय लालू का अजेय किला ढाहने के लिए एक-दूसरे के साथ की जरूरत थी, लिहाजा यह गठबंधन हुआ और धर्मनिरपेक्षता को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। तब आज क्यों धर्मनिरपेक्षता का रोना रोया जा रहा है।