सोमवार, 13 सितंबर 2010

समाजवादी या धनवादी

हमारे सांसदो ने अपने वेतन को बढाने के लिए जिस तरह दलगत भावना से उपर उठकर सदन के कार्यो को बधित किया। यह देखकर तो कहीं से ऐसा नहीं लग रहा था कि ये जनता के सेवक है। और अगर ये अपने को जनता के सेवक मानते है और संसद में इसलिए बैठे है कि जनता ने उन्हे वहां चुनकर भेजा है। तो जिस तरह ये अपने कर्मचारियों से तुलना कर अपनी तनख्वाह बढाने का तर्क दे रहे है बल्की बढा भी चुके है, तो उसी तरह से जनता की मांग है कि उसे भी उसके सेवक के बराबर सुविधा और वेतन उसे भी मिले। वह नौकरी में है या नही बिना इस बहस मे पङे उसे जनता होने और सरकार चुनने के इतने बङे काम के एवज में वेतन दिया जाना चाहिए। यहां जनता और सरकार आमने सामने है। क्योंकि जनता और सरकार दो ऐसे सत्ता के केंन्द्र है जो वेतन नही मिलने पर भी अपनी जगह कायम रहने है। इनमें से एक ने जब अपना सारा ध्यान वेतन बढोतरी पर दिया है तो दूसरा सत्ता क्यों चुप रहें।

मामला तो दिलचस्प तब और हो जाता है जब इनके वेतन में मात्र तीन गुणा की बढोतरी होती है तो गरीब सांसदो के अगुवा बनकर उभरे समाजवादी नेता मुलायम सिह यादव ने बवाल खङा कर दिया। गौरतलब है कि संसदीय समिति ने सिफारिश की थी कि सांसदों का वेतन पांच गुणा बढना चाहिए तथा भारत सरकार के सचिव से एक रुपया ज्यादा हो क्योकि वरीयता क्रम में वे सचिव से उपर है। सांसद दलील देते है कि पूरे विश्व में वेतन सबसे कम है। उनका यह भी कहना है कि उन्हे बङे श्रेत्र की सेवा करनी पङती है और उनसे मिलने वालों में उनके श्रेत्र की जनता होती है। जिन्हे चाय पिलानी पङती है, बहुत भारी खर्च है उनपर, उनकी तनख्वाह में इजाफा तो होनी ही चाहिए। लेकिन इनका काम चाय पिलाना नहीं है । अपनी तमाम् जवाबदेहियों से मुँह मोङकर अगर उन्हे चाय पिलाने का इतना ही शौक है, तो अच्छा होगा की वे चाय की दुकान खोल ले।

आज भारतीय राजनीति पर कॉर्पोरेट संस्कति हावी हो गई है जो नेताओं की बङी कारों एवं डिजाइनर कपङों में देखी जा सकती है। 1975 में संविधान में संशोधन कर समाजवादी शब्द जोङा गया, किन्तु इनका समाजवाद की दिशा में बढने का कोई प्रयास कहीं से दिखता नहीं है। 1937 में जब नौ प्रांतो में कांग्रेस की सरकार बनी थी तो मंत्री ट्रेन की सबसे निचली तृतीय श्रेणी यात्रा करते थे। और सांसद अपने को गरीब कहते है लेकिन उनकी संपत्ति की घोषणा से उनकी गरीबी का एहसास तो आम जनता को खूब होता है। यहां पर गौर करने वाली बात यह है कि जिस रफ्तार से उनकी संपत्ति बढती है यह देखकर कैसे मान लिया जाए की कम वेतन के कारण यह घाटे का धंधा है।

वेतन वृद्धि को लेकर सबसे मुखर लालू यादव थे। हजारों करोङ के चारा घोटाले को आरोपी है। बेहद गरीब परिवार से आते है। आज जो वैभव और संपत्ति उन्होने अर्जित किया है। वह इसी पेशे से किया है। और तो और कोई यह बता दे की कोई भी सांसद बनाने के बाद गरीब हुआ हो, उनकी संपत्ति तो दिन दुनी और रात चौगनी बढती है। गौरतलब है कि इनके वेतन बढने से कोई यह ना सोचे कि ये गलत तरीके से धन नहीं अर्जित करेंगे।

1 टिप्पणी:

  1. सही कहा आपने जनता ही है जो इस देश में गरीब है , कोई संसद गरीब नहीं ...

    एक बार पढ़कर अपनी राय दे :-
    (आप कभी सोचा है कि यंत्र क्या होता है ..... ?)
    http://oshotheone.blogspot.com/2010/09/blog-post_13.html

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